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15413/ज़िल्क़ाद/1446 , 11/मई/2025

उपचार कराने का हुक्म

प्रश्न: 2438

यदि कोई व्यक्ति घातक बीमारी के अंतिम चरण में है, जहाँ उपचार अब प्रभावी नहीं रह गया है (आशा की एक हल्की सी किरण है) तो क्या ऐसा रोगी उपचार स्वीकार करेगाॽ

क्योंकि उपचार के कुछ दुष्प्रभाव हैं, जिन्हें रोगी अपनी पीड़ा में और नहीं बढ़ाना चाहताॽ

सामान्य तौर पर, क्या किसी मुसलमान के लिए चिकित्सा उपचार लेना अनिवार्य है या यह एक वैकल्पिक मामला हैॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा एवं गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है, तथा दुरूद व सलाम की वर्षा हो अल्लाह के रसूल पर। इसके बाद :

सामान्य रूप से, दवा-इलाज कराना धर्मसंगत है। क्योंकि अबुद्दर्दा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने कहा : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "अल्लाह ने बीमारी और दवा दोनों को उतारा है, और हर बीमारी की दवा बनाई है। इसलिए दवा-इलाज कराओ, और निषिद्ध चीजों से इलाज न करो।” इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 3376) ने रिवायत किया है।

तथा उसामा बिन शरीक रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस है कि उन्होंने कहा : देहातियों ने कहा : “ऐ अल्लाह के रसूल! क्या हमें चिकित्सा उपचार नहीं लेना चाहिए? तो आपने जवाब दिया: "उपचार कराओ, क्योंकि अल्लाह ने जो भी बीमारी बनाई है, उसका उपचार भी ज़रूर बनाया है, सिवाय एक बीमारी के। उन लोगों ने पूछा : “ऐ अल्लाह के रसूल! वह कौन-सी बीमारी हैॽ” आपने फरमाया : "बुढ़ापा।" इसे तिर्मिज़ी (4/383, हदीस संख्या : 1961) ने रिवायत किया है और कहा है कि यह हदीस ‘हसन सहीह’ है। यह सहीहुल-जामे’ (2930) में है।

जमहूर विद्वानों (हनफ़िय्या और मालिकिय्या) का मानना है कि उपचार कराना अनुमेय है। जबकि शाफ़ेइय्या और हनाबिला में से क़ाज़ी, इब्ने अक़ील और इब्ने जौज़ी इस बात की ओर गए हैं कि उपचार कराना मुस्तहब है। इसका आधार नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह फरमान है : अल्लाह ने बीमारी और दवा दोनों को उतारा है, और हर बीमारी की दवा बनाई है। इसलिए दवा-इलाज कराओ, और निषिद्ध चीजों से इलाज न करो।” तथा इसके अलावा अन्य वर्णित हदीसें जिनमें दवा-उपचार कराने का आदेश दिया गया है। इन विद्वानों का कहना है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का खुद सींगी लगवाना और इलाज करवाना, उपचार के अनुमेय होने का प्रमाण है। शाफ़ेइय्या के निकट वांछनीयता (मुस्तहब होने) का स्थान तब है जब इसके लाभकारी होने की कोई निश्चितता नहीं है, लेकिन अगर इसका लाभकारी होना निश्चित है (जैसे घाव पर पट्टी बांधना), तो यह अनिवार्य है (हमारे समय में इसका एक उदाहरण कुछ मामलों में रक्त आधान है।).

देखिए : ह़ाशिया इब्ने आ़बिदीन 5/215, 249. अल-हिदाया तक्मिलह फत्हुल क़दीर 8/134, अल-फवाकिह अद-दवानी (2/440), रौज़तुत-तालिबीन (2/96), कश्शाफुल क़िनाअ़ (2/76), अल-इंसाफ़ (2/463), अल-आदाब अश-शरइय्यह (2/359), हाशियतुल-जुम्मल (2/134)

इब्नुल क़य्यिम रहिमहुल्लाह कहते हैं : "सहीह हदीसों में उपचार लेने का आदेश मौजूद है और यह तवक्कुल (अल्लाह पर भरोसा करने) के विपरीत नहीं है, जैसे भूख, प्यास, गर्मी और ठंड को दूर करना तवक्कुल के विपरीत नहीं है। बल्कि, एकेश्वरवाद की वास्तविकता तब तक पूरी नहीं होती है जब तक कि उन कारणों को न अपनाया जाए जिन्हें अल्लाह ने, तक़दीर और शरीयत के अनुसार, उनके प्रभावों के लिए तक़ाज़ा करने वाले बनाया है। उन कारणों को निष्क्रिय करना स्वयं तवक्कुल को दूषित करता है जिस तरह कि यह अल्लाह के आदेश और हिकमत को दूषित करता है तथा तवक्कुल को वहाँ से कमज़ोर करता है जहाँ उन्हें निष्क्रिय करने वाला आदमी यह सोचता है कि उन कारणों को छोड़ देना ही सबसे मज़बूत तवक्कुल है। क्योंकि इन कारणों को त्यागना एक विवशता व लाचारी है जो तवक्कुल के विपरीत है, जिसकी वास्तविकता यह है कि आदमी का ह्रदय दीन और दुनिया के लाभ को प्राप्त करने तथा दीन और दुनिया के बारे में हानि को दूर करने में अल्लाह पर भरोसा रखे। लेकिन इस भरोसे के साथ, कारणों को अपनाना भी ज़रूरी है, अन्यथा वह अल्लाह की हिकमत और शरीयत को निष्क्रिय करने वाला होगा। इसलिए बंदे को अपनी विवशता को तवक्कुल नहीं बनाना चाहिए और न ही अपने तवक्कुल को विवशता बनाना चाहिए।” “ज़ादुल मआ़द” (4/15). तथा देखें : “अल-मौसूआ अल-फिक्हिय्यह” (11/116)

उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर का सारांश यह है कि : विद्वानों के नज़दीक दवा लेना अनिवार्य नहीं है, सिवाय इसके कि जब – कुछ लोगों के निकट -  उपचार का लाभकारी होना सुनिश्चित हो। चूँकि प्रश्न में उल्लिखितत स्थिति में यह सुनिश्चित नहीं है कि उपचार लाभकारी होगा और यह कि इससे रोगी को मानसिक कष्ट पहुंचता है, तो ऐसी स्थिति में उपचार त्यागने में बिल्कुल पाप नहीं है। तथा मरीज़ को चाहिए है कि वह अल्लाह पर पूरा भरोसा रखे और उसी की शरण ले, क्योंकि आकाश के दरवाजे दुआ के लिए खुले हैं। तथा मरीज़ को पवित्र कुरआन के द्वारा अपने ऊपर दम करना चाहिए, अदाहरण के तौर पर वह सूरतुल-फातिहा, सूरतुल-फलक़ और सूरतुन्नास पढकर खुद पर फूंक मारे। ऐसा करने से उसे मानसिक और शारीरिक लाभ होगा, साथ ही उसे क़ुरआन का पाठ करने का सवाब मिलेगा। तथा अल्लाह ही शिफा देने वाला है, उसके अलावा कोई शिफा प्रदान करने वाला नहीं है।

स्रोत

शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद

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